Posts

न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना

 किसानों के आंदोलन से न्यूनतम समर्थन मूल्य का मसला एकबार फिर से चर्चा में आ गया है। वास्तव में अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तो किसानों का अधिकार है, और यह उसे मिलना ही चाहिए। वस्तुत न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को बाजार के उतार चढ़ाव और व्यापारियों - बिचौलियों के शोषण से बचाने की गारंटी देता है। किसानों ने अपनी खेती मे जो भी  लागत लगाई है,  जैसे बीज, खाद, पेस्टीसाइड, श्रम,खेत का किराया , चाहे अपनी है या किराये की है, उसका उसे प्रतिफल तो मिलना ही चाहिए, परंतु अभी यह उनका अधिकार नहीं है।  खेती को जबतक मात्र आजीविका का साधन बनाये रखा जाएगा, तबतक उसे लोग दिल से नही अपनायेंगे। ये अलग बात है कि  खेती कभी व्हाइट कालर जाब तो नही बन सकता परंतु इसे एक सुरक्षित व्यवसाय के रुप मे परिवर्तित कराना ही सरकार  और स्वयं किसानों का उद्देश्य होना चाहिए। यदि सभी किसान सिर्फ अपने और अपने  परिवार के खाने के लायक मात्रा में ही  खेतों से उत्पादन करने लगेगा तो बाकी तीस - चालीस प्रतिशत जनसंख्या क्या खाएगी? अब प्रश्न यह है कि जब खेती किसानी इतना महत्वपूर्ण है तो सरकार एमएसपी को एक विधिक दर्जा देकर कानून क्यों

सिकुड़ते जा रहे हैं जंगल

वास्तव में इंसान के भौतिक विकास की कीमत प्रकृति चुका रहा है। यूं तो पर्वत, पहाड़ , नदी, सागर सभी पर इस विकास का असर हुआ है परंतु सबसे बड़ी क़ीमत  पेड़ पौधे और वन चुका रहे हैं। जब भी किसी सड़क का चौड़ीकरण होता है, तो सबसे पहले उसके किनारे लगे पेड़ों  को काट दिया जाता है। भले ही हम प्रतिवर्ष सघन  वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाकर पेड़ों को लगाते हैं, परंतु उस पुराने पेड़ की स्थिति तक पहुंचने में कई दशक लग जाते हैं। शहरों का विकास व बढ़ती जनसंख्या को खिलाने के लिए वनों की भूमि का बदलता उपयोग वनों के विनाश का प्रमुख कारण है। एक रिपोर्ट “2023 फारेस्ट डिक्लेरेशन असेसमेंट : ऑफ ट्रैक एंड फॉलिंग बिहाइंड” के अनुसार  यदि ग्लोबल वार्मिंग में हो रही वृद्धिदर  को 1.5 डिग्री सेल्सियस के नीचे रखना है, तो जंगलों को बरकरार रखना बेहद जरूरी है। सच कहें तो ये जंगल हमारी दुनिया के फेफड़े हैं, जो न केवल प्रदूषित हवा को साफ करते हैं बल्कि जैवविविधता को भी बचाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। यह उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसों के एक बहुत बड़े हिस्से को सोख लेते हैं, जिसकी वजह से तापमान में होत

गंगा नदी के अस्तित्व खतरे मे

   केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मार्च 2023 मे उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के 94 जगहों से गंगा जल की जांच कराई थी, जिसमें पाया गया कि अधिकांश स्थानों पर गंगा का पानी पीने योग्य क्या, नहाने लायक भी नहीं रह गया है। शहर के सीवरेज ने गंगा जल की ऐसी दुर्दशा कर दी है कि  गंगा के पानी को फिल्टर तक नहीं किया जा सकता है। पिछले दो वर्षों में पटना के घाटों पर गंगा जल का प्रदूषण 10 गुना अधिक हो गया है। पानी के प्रदूषण ,घटते जल स्तर, निरंतर कम होते नदी पाट, सिल्टों के जमाव से नदी सिमट  रही है। स्वाभाविक  रूप से गंगा नदी धीरे धीरे मृतप्राय होने की स्थिति में आ रही है। आईआईटी खड़गपुर के प्रोफेसर अभिजीत मुखर्जी के साथ कनाडियन शोधकर्ता सौमेंद्र नाथ भांजा और ऑस्ट्रिया के योशिहीदी वाडा ने  2015 से 2017 के मध्य गंगा नदी पर किए अपने अध्ययन में कहा  कि गंगा  नदी में हरिद्वार से लेकर बंगाल की खाड़ी तक पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। लगभग दो दशकों से गर्मियों के सीजन में गंगा के पानी के स्तर में निरंतर कमी देखी जा रही है। मई महीने में प्रयागराज के पास फाफामऊ में गंगा के पानी का

सौर ऊर्जा से बुंदेलखंड में विकास की संभावनाएं

जहां एक ओर शुष्क और गर्म जलवायु , पानी की कमी और पठारी क्षेत्र होने के कारण बुंदेलखंड खेती, उद्योग और विकास की दृष्टि से पिछड़े होने का दंश झेल रहा है , वहीं दूसरी ओर यही कमी इसको नवीकरणीय सौर उर्जा के बेहतर उत्पादन को लिए अनुकूल माहौल भी प्रदान करता है। यही कारण है कि बुंदेलखंड में खाली जमीन की उपलब्धता और मौसम के साफ रहने के कारण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सौर ऊर्जा से यहां पर सोलर प्लांट लगाने को निजी कंपनियां आकर्ष‍ित हुई हैं। उपयुक्त जलवायु के चलते बुंदेलखंड में सौर ऊर्जा प्लांटों की स्थापना काफी  पहले प्रारंभ हो गई थी। वर्ष 2016 में पनवाड़ी ,महोबा और हमीरपुर में लगाए गए निजी सौर ऊर्जा प्लांटों से लगभग 200 मेगावॉट बिजली की आपूर्ति की जा रही है। बांदा जिले में चहितारा गांव में 20 मेगावॉट का सौर ऊर्जा प्लांट भी वर्ष 2016 से ही चल रहा है। इसके पुर्व ललितपुर में वर्ष 2013 में 70 मेगावाट का सौर ऊर्जा प्लांट शुरू किया गया था। अडानी सोलर एनर्जी लिमिटेड ने चित्रकूट  के छीबों गांव में 25 मेगावॉट का सौर ऊर्जा यंत्र चालू कर दिया है। यहीं  50 मेगावॉट क्षमता का एक और सौर ऊर्जा प्लांट भी लगाया गय

चावल मूल्य वृद्धि के मायने

कुछ महीनों  से देशी- विदेशी बाजारों में चावल के मूल्यों में जबरदस्त तेजी देखने को मिल रही है। आजकल चावल का भाव लगभग पंद्रह साल के अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है। पारंपरिक बासमती धान की कीमतें 6 हजार रुपये प्रति क्विंटल से अधिक हैं, जबक‍ि पूसा 1121 और 1718 जैसी अन्य प्रीमियम किस्म के धान का रेट 45 सौ रुपये प्रति क्विंटल  हैं। सोनम चावल भी लगभग  25 सौ रुपए प्रति कुंतल के आसपास बिक रहा है। 23 अक्टूबर 2023 को लंबे दाने वाले बासमती चावल के लिए न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) को 1,200 डॉलर प्रति टन से घटाकर 950 डॉलर प्रति टन करने के केंद्र सरकार के निर्णय के बाद उत्तर भारतीय राज्यों के अनाज बाजारों में बासमती धान की कीमतों में अचानक उछाल आ गया। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO ) का कुल चावल प्राइस इंडेक्स जुलाई 2023  में एक महीने की तुलना में 2.8 फीसदी बढ़कर औसतन 129.7 अंक हो गया। यह पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत अधिक है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पत्रिका ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार थाईलैंड व्हाइट राइस ( 5% ब्रोकन) में पिछले दो हफ्ते में 57 डॉलर की तेजी आई

बदल रही है भारतीय खेती

भारतीय खेती के पिछड़ेपन का मुख्य  कारण भूमि सुधार संस्थागत सुधार और तकनीकी सुधारों में  पिछड़ापन तो रहा ही ,साथ में कभी उसको एक व्यवसाय के रुप में न देखकर मात्र आजीविका के रूप में देखने की सोच भी रही है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान कृषि का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक हितों की पूर्ति करना था। हालांकि स्वतंत्रता पश्चात भारत ने कई कृषि सुधारों को लागू किया है। पचास और साठ के दशक के सुधार  कृषि उत्पादकता और आत्मनिर्भरता बढ़ाने पर केंद्रित थी। हरित क्रांति का उद्देश्य उच्च उपज वाली फसल किस्मों,आधुनिक कृषि तकनीकों और सिंचाई सुविधाओं की शुरूआत के माध्यम से कृषि उत्पादकता को बढ़ाना था। यह भारत को खाद्य अल्पता की स्थिति से  आत्मनिर्भर राष्ट्र में बदलने में सफल रहा। सरकार ने भूमि हदबंदी कानूनों के माध्यम से भूमि के पुनर्वितरण के प्रयास किए ,जिसका उद्देश्य सामंती भूमि स्वामित्व प्रणाली को तोड़ना था। हालांकि उद्देश्य अच्छा था परन्तु कार्यान्वयन ख़राब होने  के कारण विभिन्न राज्यों में इसका प्रभाव अलग-अलग रहा। 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और बढ़त निजीकरण के चलते

तपोभूमि चित्रकूट के राम

गोस्वामी तुलसीदासजी  ने रामचरितमानस में लिखा है  “राम लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।”        अर्थात लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं, जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयंत सहित बसता है। यह पर्णकुटी उस सुंदर चित्रकूट में बनी हुई थी, जहां श्रीराम अपने वनवास काल में सर्वाधिक दिनों तक रहे। वस्तुत : हिंदू धर्म में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का विशेष महत्व है। यदि अयोध्या को राम की जन्म भूमि होने का गौरव मिला है तो चित्रकूट वह स्थान है जहां राम ने अपनी तपस्या के बल पर भगवान राम होने का रास्ता अख्तियार किया । कष्टों में ही तपकर मनुष्य का आत्मबल, चेतना, साहस और अंदरूनी गुणों का निखार आता है। जब प्रयाग में भारद्वाज आश्रम में राम ने महर्षि से पूछा कि वनवास काल व्यतीत करने के लिए उचित स्थान के बारे में बतायें तो महर्षि भारद्वाज ने चित्रकूट कहा क्योंकि यह स्थान हर दृष्टिकोण से शांत, सुरक्षित और प्रकृति सौंदर्य से भरपूर था। ‘दशकोशइतस्तात गिरिर्यस्मिन्निवत्स्यसि, महर्षि सेवित: पुण्य: पर्वत: शुभदर्शन: ।  रामचरितम